History Of Katyuri Dynasty

History Of Katyuri Dynasty : कुमाऊं पर कब तक रहा कत्यूरी राजवंश का राज, कैसे बने हालात

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History Of Katyuri Dynasty : उत्तराखंड के कुमाऊं को भले ही आज रंगीलो कुमाऊं नाम से जानते है लेकिन एक समय ऐसा भी था जब कुमाऊं में कई शासकों ने राज किया था. कुमाऊं के राजाओं ने अपनी जनता के लिए खुद का लहु रंगीन किया तो किसी ने यहां जनता के हित में मन्दिर, नाले, तालाब व बाजारों का निर्माण करवाकर विकास के रंगो से इस धरती पर रंग भरे।

 

History Of Katyuri Dynasty

History Of Katyuri Dynasty : लोक देवता के रूप में पूजा

फहरिस्त पर नज़र डाले तो सबसे पहले कुमाऊं पर कत्यूरी राजवंश का कब्जा हुआ जिन्होंने ना केवल कुमाऊं पर राज किया बल्कि ऐसे उदारण पेश किए की आज भी कुमाऊँ निवासी ‘कत्यूर’ को लोक देवता मानकर पूजा अर्चना करते हैं। तो चलिए आज की अपनी इस कहानी में हम आपको मुख्य तौर पर कत्यूरी राजवंश के बारे में ही बताएंगे की ये शासन काल कब से कबतक रहा इनमें कौन—कौन से राजा हुए और इस दौरान कुमाऊं की क्या कुछ स्थिति हुआ रही।

History Of Katyuri Dynasty : उत्तराखंड में कुणिंद और कुषाणों के शासन काल के बाद कार्तिकेयपुर राजवंश का उदय हुआ जिसे कत्यूरी राजवंश के नाम से भी उत्तराखंड के इतिहास में जाना जाता है। ये गाथा उस वक्त की है जब भारत के प्रतापी राजा हर्ष की मृत्यु हुई। उस समय छोटे-छोटे कई राज्य पृथक होकर खुद को स्वतंत्र घोषित करने लगे। सर से राजा का साया हटने के बाद हर कहीं अराजकता का माहौल पैदा हो गया और कुछ ऐसा ही हाल उत्तराखंड में भी देखने को मिला। लेकिन उस समय इस अराजकता के माहौल को उत्तराखंड में कत्यूरी शासकों ने खत्म किया।

इतिहासकार राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये समय सन् 850 से 1060 के बीच का था जब उत्तराखंड की बागडोर कत्यूरी राजाओं ने अपने हाथ में ली। कत्यूरी शासकों की राजधानी पहले जोशीमठ थी लेकिन बाद में यह बदलकर कार्तिकेयपुर हो गई। हालंकि इसको लेकर भी कई इतिहासकारों की राय भिन्न है।

 

History Of Katyuri Dynasty

उत्तराखंड में कत्यूरी राजवंश के प्रथम शासक होने के कई प्रमाण भी मिलते हैं। कुटिया लिपि में बागेश्वर, कंडारा, पांडुकेश्वर एवं बैजनाथ से मिले ताम्र अभिलेखों में कत्यूरी राजवंश का जिक्र इस बात की तस्दीक करता है कि कत्यूरों ने ही उत्तराखंड में प्रथम बार शासन किया था। यही नहीं उत्तराखंड के इतिहास को लिखने वाले अंग्रेजी इतिहासकार एटकिंसन के अनुसार कत्यूरी राजवंश की सीमा उत्तर में तिब्बत कैलाश, पूर्व में गण्डकी और दक्षिण में कठोर तक विस्तृत था। बागेश्वर लेख में मिले लेख से पता चलता है कि उत्तराखंड में कत्यूरी राजवंश की स्थापना बसंत देव ने की थी और उस समय बसंत देव को परम भट्टारक महाराजधिराज परमेश्वर की उपाधि से संबोधित किया जाता था। ऐसा कहा जाता है कि बसंत देव ने ही कार्तिकेयपुर की नीव रखी थी।

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कार्तिकेय पुर राजवंश की फहरिस्त पर नज़र डाले तो आपको पता चलेगा की सबसे पहले यहां बसंत देव ने सत्ता संभाली उनके बाद खर्परदेव ने सत्ता संभाली और खर्पर वंश की नींव रखी। खर्परदेव के बाद उनके बेटे कल्याण राज ने उनकी गद्दी संभाली जिनकी पत्नी महारानी लद्धादेवी थी। खर्पर वंश के अंतिम शासक त्रिभुवन राज हुए जिन्होंने बसंत देव के बाद परम भट्टारक महराजधिराज की उपाधि धारण की और उन्होंने ही कार्तिकेय पुर में निंबर वंश की स्थापना की। इतिहासकारों के अनुसार निबंर वंश के बाद कार्तिकेय पुर में सलौणादित्य परिवार का आगमन हुआ और उनके बाद अंतिम शासक आसन्तिदेव वंश के शासक हुए।

वैसे तो ऐतिहासिक तौर पर कार्तिकेयपुर राजवंश में 3 परिवारों बसंत देव, निम्बर व सलौणादित्य को ही प्रमुख रूप से बताया गया है। लेकिन निम्बर वंश से पहले खर्पर वंश का भी जिक्र है। जो बंगाल शासक धर्मपाल के गढ़वाल आक्रमण के समय और निम्बर वंश से पहले इस राज्य पर अधिपत्य जमाए हुए थे। निंबर वंश का उल्लेख नालंदा अभिलेख में बंगाल के पास शासक धर्मपाल द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण का जिक्र है इसके बाद ही कत्यूरी वंश के निंबर वंश का अधिपत्य हुआ। निबंर वंश के शासक शैव मतावलम्बी थे जिन्होंने जागेश्वर में विमानों का निर्माण कराया और मतावलंबी के बाद उनकी गद्दी उनके पुत्र इष्टगण ने संभाली। इष्टगण ने उत्तराखंड को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया जिसने जागेश्वर में ही नवदुर्गा महर्षि मर्दिनी लकुलीश और नटराज मंदिर का निर्माण करवाया।

यही नहीं इष्टगण देव के बाद ललितशूर देव कार्तिकेय पुर का शासक बना जिसे पांडुकेश्वर लेख में कार्तिकेय पुर राज वंश का प्रतापी एवं सूर्यभान नरेश कहां गया है उसे पांडुकेश्वर ताम्रपत्र में कलिकलंक पंक में मग्न धरती के उद्धार के लिए वराह अवतार के समान बताया गया है। ललितशूर देव के बाद उनकी गद्दी भूदेव ने संभाली जिन्होंने बौद्ध धर्म का विरोध कर बैजनाथ में कई मंदिर निर्माणों में अपना सहयोग दिया।

यहां देखें पूरी वीडियो :

वहीं निबंर वंश के बाद जब कार्तिकेय पुर में सलौणादित्य परिवार का आगमन हुआ तो सलौणादित्य के पुत्र इच्छरदेव ने सत्ता संभाली और कार्तिकेय पुर में सलौणादित्य वंश की स्थापना की। यही नहीं बालेश्वर और पांडुकेश्वर से मिले ताम्रलेखों के अनुसार इच्छरदेव को कार्तिकेयपुर यानी की कत्यूरी राजवंश का सबसे विद्वान राजा बताया गया है। इच्छरदेव के बाद इस वंश में देसतदेव, पद्मदेव, सुभिक्षराजदेव शासकों ने राज किया और इनके बाद आसतिदेव वंश का आगमन हुआ जिसकी स्थापना आसतिदेव द्वारा ही कि गयी थी।

इस वंश का अंतिम शासक ब्रह्मदेव हुआ जिसे कत्यूरी शासनकाल के इतिहास में अत्याचारी एवं कामुक राजा बताया गया है। और ऐसे कत्यूरी राजवंश का शासनकाल पूरा हुआ। इतिहासकारों के अनुसार ब्रह्मदेव के बाद कत्यूरी राजवंश का इतिहास में कहीं जिक्र नहीं मिलता और इसी वजह से कत्यूरी राजवंश के शासनकाल को बस यहीं तक ही माना जाता है।

कत्यूरी शासनकाल के कुमाउ पर प्रभाव का अंदाज़ा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि यहां के लोग आज भी ‘कत्यूर’ को लोक देवता मानकर पूजा अर्चना करते हैं और ऐसा इसलिए क्योंकि कत्यूरी राजवंश के दौरान ही जनता के हित में मन्दिर, नाले, तालाब व बाजार का निर्माण कराया था। यही नहीं पाली पहाड़ के ‘ईड़ा’ के बारह खम्भा में इन राजाओं की यशोगाथा आज भी अंकित है। जिसको पढ़कर के जरूर कहा ​जा सकता है कि कत्यूर राजा वैभवशाली और प्रजावत्सल थे तभी तो कुमाऊंवासी आज भी उन्हें देवता के रूप में पूजते हैं।

 

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